Monday 5 January 2015

गाली जैसी ही गालियां

मूलत: गालियां दो तरह की होती हैं। पहली जिन्हें हम श्लील कहते हैं, ये गालियां सामने वाले के हावभाव या गुणों को देख कर दी जाती हैं जैसे- कुत्ता, गधा, उल्लू या बन्दर आदि । दूसरे किस्म की गालियां जो अश्लील की श्रेणी में आती हैं वो हमारे तथाकथित सभ्य समाज का वो चेहरा है जो गुस्से की हवा चलते ही उघड़ जाता है । दरअसल ये गालियां पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था से उपजे 'मर्द' की दमित यौन-कुंठाएं हैं । सामाजिक जिम्मेदारियों और सभ्य लेखन की मजबूरियों के मद्देनजर यहां सिर्फ पहली किस्म की गालियों का ही जिक्र हो सकता है, सो वही कर लेते हैं।पहली गाली जो आपने निकाली भी है और सुनी भी है वो है बेवकूफ। कमअक्ली या ग़लतियां करने वाले को अक्सर बेवकूफ कहते हैं। वकूफ अरबी भाषा का शब्द है जिसका मतलब है रुकना या डटे रहना। बे-वकूफ वह होता है जो बिना रुके कोई भी काम करता है, जैसे लगातार बोलता है या खाता रहता है उसे बेवकूफ कहते हैं।
एक और गाली है चुगद। कुछ लोग इसे दूसरी श्रेणी में भी रख लेते हैं, पर यह भी विशुद्ध सात्विक किस्म की ही गाली है। सही शब्द है चुग़्द। अक्सर हम गाली देते हुए मूर्ख आदमी को निरा चुग़्द कह देते हैं। इस शब्द का अर्थ उल्लू। उल्लुओं की कई किस्में हैं, उनमें सबसे छोटे उल्लू को चुग़्द कहते हैं। उल्लू से जुड़ी एक और गाली है- उल्लू का पट्ठा। हम पता नहीं क्यों इसे उल्लू का बेटा या बच्चा मान लेते हैं। दरअसल पट्ठे का मतलब है शिष्य या चेला खासतौर पर पहलवान बनने वाला शिष्य। इसके साथ ही एक और गाली है जो बिगड़कर दूसरी श्रेणी में चली गई । फारसी का शब्द है चूली, जिसका अर्थ है कायर, डरपोक, क्लीव या नामर्द। यह चूली व्यक्तिगत स्तर पर चूलिया हो गया और आगे जाकर यह क्या बना गया सब जानते ही हैं।
सीधे तौर पर गधा तो गाली है कि पर एक और गाली है खरदिमाग। आमतौर हम समझते हैं खर यानी गधा और खर दिमाग माने गधे जैसे दिमाग वाला। फारसी में खर का गधे के अलावा एक और अर्थ है बड़ा। खरदिमाग यानी बड़े या ऊँचे दिमाग वाला, घमंडी। खर कई शब्दों के साथ पढ़ा-सुना होगा पर इस समय याद नहीं आएगा। ऐसा एक शब्द है- खरबूज। बूज कहते हैं मीठे को खर और बूज यानी बड़ा (आकार में) मीठा फल। साथ ही एक और शब्द है तरबूज। यानी वह मीठा फल तो तर हो, यानी पानी से भरपूर हो। लगे हाथ यह भी कि कुछ क्षेत्रों में तरबूज को हन्दवाना भी कहा जाता है जो पंजाबी में आकर दुहाणा हो गया और राजस्थानी में मतीरा। खर से एक शब्द है खरगोश। खर मतलब गधा। गोश का अर्थ है कान। फारसी में कहा जाता है कि गोश गुजार कर रहा हूं। यानी आपके कानों के लिए अर्ज है। खरगोश का अर्थ हुआ गधे जैसे कानों वाला।

Sunday 4 January 2015

शातिर और दबंग

आम धारणा है कि भाषा को अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे लोगों ने बिगाड़ा है। सच्चाई इसके बिलकुल उल्ट है, भाषा की जो जड़ें तथा-कथित पढ़े-लिखे वर्ग ने खोदी हैं वैसी अनपढ़ तो कर ही नहीं सकता। हालांकि लेखकों, कवियों और शायरों से शुद्ध भाषा की उम्मीद नहीं रखी जाती उनके यहां तो नए विचार और कल्पना की उड़ान तो हो सकती है शुद्ध व्याकरण नहीं। लेकिन पत्रकार जो किसी भी लिखने वाले से ज्यादा पढ़ते और लिखते हैं, वे जब भाषा का जनजा निकालते हैं तो आश्चर्य होना स्वभाविक है। आज के मीडिया ने शब्दों के लिए अपने ही अर्थ घड़ लिए हैं, अकसर जिनका वास्तविक अर्थों से दूर-दूर तक कोई वास्ता तक नहीं होता। ऐसा ही दो शब्द है दबंग और शातिर।
शब्दकोश दबंग का अर्थ बताता है- जो किसी ने न दबे, निडर, बेधड़क, प्रभावशाली, दिलेर। अब इन अर्थों में कहां है गुण्डागर्दी या बदमाशी का भाव? आजकल के अखबार और टीवी दबंगों की दबंगाई के किस्से न जाने किन अर्थों में सुना और बता रहे हैं। आज से मात्र दस-बारह साल पहले तक दबंग एक सम्मानजनक और आदर योग्य शब्द था, पर जब से यह शब्द मीडिया के हत्थे चढ़ा है इसके अर्थ ही बदल गए। आज दबंग दो टके का गुण्डा बनकर रह गया है, जिसका काम अपने क्षेत्र में आतंक फैलाना भर रह गया है।
दूसरा शब्द है शातिर। इस शब्द को अक्सर शातिर चोर, शातिर बदमाश, शातिर लुटेरा जैसे अलंकारों के साथ पढ़ा-सुना होगा। पहली नजर में शातिर का अर्थ छटा हुआ या खतरनाक जैसा लगता है। ह$कीकत में शतरंज के खिलाड़ी को शातिर  कहते हैं, जैसे गोल्फ खेलने वाले को गोल्फर और फुटबॉल खेलने वाले को फुटबॉलर। शातिर महज एक माहिर खिलाड़ी होता जो न तो खतरनाक है और न ही छटा हुआ। क्या विश्वानाथ आनंद या गैरी कास्परोव किसी भी तरह से खतरनाक लगते हैं। हद तो तब हो जाती है जब कहा जाता है कि चार शातिर पकड़े, उनसे तमंचा और स्मैक बरामद। कोई भी भाषा को जानकार बेहोश हो सकता है जब किसी समाचार-पत्र में यह पढ़े कि- 'बहुत शातिर होते हैं मच्छर...।' बीबीसी की हिन्दी सर्विस वाले तो इसके लिए सारी हदें ही लांघ गए। वो लिखते हैं- 'कौअे से भी शातिर होते हैं चिपांजी...।'
अरबी भाषा के इस शब्द के साथ डॉ. हरदेव बाहरी द्वारा सम्पादित हिन्दी के सबसे प्रतिष्ठित शब्दकोश ने भी वही किया जो आम आदमी करता आ रहा है। डॉ. बाहरी इसका अर्थ बताते हैं- परम धूर्त, काइयाँ और चालाक। हमारे भाषा-विज्ञानियों ने शतरंज के खिलाड़ी के लिए सही शब्द शातिर छोड़कर पतंगबाज की तर्ज पर एक नया शब्द घड़ लिया है- शतरंजबाज। इसके लिए एक कहावत याद आती है- कुँए में ही भांग पड़ी हुई है। अन्दाजा है कि पहली बार बहुत तेज दिमाग ठग या धोखेबाज अपराधी के लिए शातिर दिमाग अपराधी इस्तेमाल हुआ होगा। धीरे-धीरे दिमाग गायब हो गया रह गया महज शातिर अपराधी। बाद में अपराधी भी गायब हो गया और सिर्फ शातिर रह गया। इस तरह एक अच्छा-भला शतरंज का खिलाड़ी बन गया छटा हुआ अपराधी।

काँइयां और लीचड़

गालियों  का प्रचलन समाज में कब से प्रारम्भ हुआ और सबसे पहले किसने किसको गाली दी थी तथा सुनने वाले पर उसकी प्रतिक्रिया किस रूप में प्रकट हुई थी- यह शोध के लिए एक मजेदार विषय हो सकता है। मान्यता है कि गालियों का प्रादुर्भाव भाषा के विकास के साथ-साथ ही हुआ होगा। तीक्ष्ण, अप्रिय और अपमानित करने वाले शब्दों को 'गाली' माना गया है। शब्द-प्रहार, शस्त्र-प्रहार से कहीं अधिक घातक और मर्मभेदी हो सकता है, और प्राय: होता भी है। स्मरण कीजिए, महाभारत का वह प्रसंग जब द्रोपदी ने दुर्योधन का उपहास 'अंधे का अंधा' कहकर किया था, जिसके परिणाम में महाभारत जैसा भीषण युद्ध हुआ। रामचरित मानस का वह प्रसंग भी जब लक्ष्मण ने परशुराम को नसीहत देते हुए कहा है- वीर व्रती तुम धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।
गालियों का एक दूसरा पहलू यह भी है कि वे मानव-जाति के परस्पर सम्बन्धों को अनायास उद्घाटित करती हैं। यूँ तो गालियाँ विश्व की लगभग सभी भाषाओं और बोलियों में कही-सुनी जाती हैं, किन्तु भारत में गालियों का अपना अलग ही अन्दाज है। भारत में गायी हुई गालियों का बुरा नहीं माना जाता। कदाचित् इसीलिए हमारे यहाँ विवाह-शादियों में तथा होली जैसे त्यौहारों पर गालियों को गाने की पुरातन प्रथा चली आ रही है। विवाह मेंं महिलाओं के द्वारा और होली पर पुरुषों के द्वारा गायी जाने वाली और उमंगमय गालियों का कोई बुरा नहीं मानता। जबकि अन्य किसी अवसर पर दी हुई किसी की भी गाली हमें गोली की तरह बींध कर रख देती है और क्षणभर में खून-खराबे की नौबत आ जाती है।
गालियों के अनेक प्रकार हैं। कुछ गालियाँ जाति-बोधक होती हैं, तो कुछ संबंध बोधक। कुछ गालियाँ मानव की विकलांगता से जुड़ी होती हैं, तो कुछ उसके स्वभाव से। कई गालियाँ मानव का जानवरों से तादात्म्य स्थापित करती हैं, तो कई गालियों में उसके बौद्धिक स्तर की धज्जियाँ उधेड़ दी जाती हैं। आज के दोनों शब्द इन संदर्भो में गाली की ही श्रेणी में आते हैं।
लीचड़ शब्द सबने सुना ही होगा, हो सकता कुछ का वास्ता लीचड़ों से पड़ा भी हो। शब्दकोश इसकी उत्पत्ति के बारे में कुछ नहीं कहता पर डॉ. हरदेव बाहरी के शब्दकोश में इसका अर्थ है- सुस्त, काहिल और नाकारा। बहुत से लोग लीचड़ कंजूस और चिपकू किस्म के आदमी को भी कहते हैं और कुछ घटिया व्यवहार करने वाले को।
इसके सारे अर्थ स्वीकार कर भी लें तो भी सवाल अपनी जगह है कि यह शब्द किस भाषा का है और आया कहां से? जानकर आश्चर्य होगा कि यह शब्द अंग्रेजी शब्द लीच (Leech)से बना है जिसका अर्थ है जोंक। यह पानी का एक कीड़ा है जो शरीर से चिपक कर खून चूसता है। यही वजह है कि अधिक चिपकने वाले आदमी को भी जोंक कहा जाता है। इसी लीच में हिन्दी का तड़का लगा कर नया शब्द से बना लीचड़।
इसी तरह एक शब्द है काँइयां। शब्दकोश में इसका अर्थ है चालाक, धूर्त या मक्कार। इस शब्द के पीछे एक रोचक कहानी है। बरसों से हरियाणा, राजस्थान और पंजाब में यूपी और बिहार से लोग काम-काज के लिए आते रहे हैं। यूपी और बिहार से आये ये लोग आपस में बात करते हुए एक दूसरे को 'ऐ हो भइया' या 'कैइसन हो रे भइया' कह कर बुलाते-पुकारते थे, इसी वजह से उनका नाम 'भइया' चलन में आ गया।
ऐसे ही राजस्थान के लोग नौकरी और व्यवसाय के लिए बंगाल और असम जाते रहे हैं। ये राजस्थानी बंगाल और असम रहते हुए आपस में बात करते हुए 'काईं है, काईं करै है, काईं चाइजै' आदि बोलते रहते थे। इन राजस्थानियों के चालाकी के किस्से तो सारे देश में मशहूर हैं ही। यही वजह है कि वहां के लोग इन चालाक राजस्थानियों को 'काँई-काँई' बोलने के कारण काँइयां कहने लगे और धीरे-धीरे यह शब्द सारे देश में प्रचलित हो गया।